सुबह की हवा

on Tuesday, April 7, 2009

सुबह के बजे है छत पे टहल रहा हूँ ठंढी हवा के झोंके मेरे गालो को चूम रही है। बदन पर बारिश की इठला कर पड़ती बूंदो की फुहार किसी ख्वाब की दुनिया में ले जाती है॥ उस बचपन की ओर जब बारिश में लोट पोट कर नहाना घंटो छत पर लेट कर बदन पर पड़ती बूंदों को महसूस करना और तैरते हुए कागज की नाव पर बैठी चीटी को दूर तक जाते देखना..... लेकिन आज की ये सुबह की ठंढी हवा और बारिश की बुँदे कुछ और भी महसूस करा रही है... आंखे बंद करके जब बूंदों को महसूस करता हूँ तो लगता है जैसे ये बूँद बदन को बेध कर मुझमे समां रही है... जैसे कोई प्रेयसी अपने प्रेमी के बदन से लता की तरह लिपट कर आत्मसात हो रही हो.......
हवा
ना कोई रंग है
ना कोई सीमा
तू भी भीगा
मै भी भीगा
तन मन भीगा सारा
तेरा भी है मेरा भी है
चाहे जितना ले लो.....

3 comments:

दिगम्बर नासवा said...

गहरी और भावुक अभिव्यक्ति है............

हवा के साथ साथ बहती हुयी रचना

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

narayan narayan

रचना गौड़ ’भारती’ said...

बहुत अच्छा लिखा है . मेरा भी साईट देखे और टिप्पणी दे

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